सोमवार, 3 फ़रवरी 2014

शहर सिखाये....

"शहर सिखाये कोतवाल " -- इस लोकोक्ति का अर्थ दिल्ली आने के बाद मालूम पड़ा. दिल्ली आनेवाले या यूँ कहें विस्थापित होने वाले हर शख्स की कहानी एक जैसी ही है. दिल्ली आपको सिर्फ रोजगार ही नहीं देती वरन कुछ मित्र भी देती है जिनके साथ आपको तब तक रहना होता है जब तक आपकी माली हालात आपको अकेले रहने की इज़ाज़त नहीं देती. जिंदगी के कुछ साल हम उन्ही दोस्तों के साथ गुजारते हैं और कई साल बीतते-बीतते एक रिश्ता कायम हो जाता है सबके बीच. वक़्त गुज़रता है और वक़्त के साथ-साथ ही सोच और उम्मीदों में भी बदलाव आता है .एक दिन हम उसी बरसों के रिश्ते को बड़े सुकून से अलविदा कहते हैं मिलते रहने की हिदायत के साथ. लेकिन दिल्ली कहाँ मौका देती है दोस्तों रिश्ता निभाने की ? 

                                          खैर , अकेले होने की अपनी कई मुश्किलें हैं पर जो सबसे मुश्किल चीज़ है वो है किराये का घर. कई व्यवसाय की तरह किराये पर घर उठाना भी एक व्यवसाय है यहाँ. इस व्यवसाय में जाने अनजाने हर शख्स शामिल है. कोई किराया देने वाला ,कोई किराया लेने वाला और कोई दोनों को मिलाने वाला. बिलकुल कॉर्पोरेट की तरह काम होता है. इतने सारे दस्तावेज की खानापूर्ति करनी पड़ती है मानो कोई नई नौकरी हाथ लग गई हो. हर साल १०% किराया वृद्धि की शर्त  के साथ आपको घर नसीब होगा. मतलब कम्पनियां जितना हर साल तनख्वाह में वृद्धि करेंगी वो आपका नहीं, आपके मकान मालिक का होगा. इस वजह से लगभग दिल्ली के हर कोने में मुझे रहना पड़ा है और इसी वजह से कुछ अनुभव भी हाथ लगे.
                                                         पने शुरुआत के दिनों में मैं JNU के बगल में "मुनिरका" में रहा था. १९८२ एशियाड गेम के पहले सुना है उस जगह का नाम मुनिरका गाँव हुआ करता था. आज भी वहाँ बड़े बूढ़ों के चौपाल लगते हैं ,हुक्का जलता है ,ताश की बाजियां होती हैं - सब गाँव की परम्पराएं जीवित दिखेंगी. अंदर गलियों में घूमो तो इतनी संकरी गलियों से पाला पड़ेगा कि सहसा आपको बनारस का अनुभव होगा फर्क इतना है कि जगह जगह आपको मंदिर नहीं दिखेगा. भारत के लगभग क्षेत्र के लोग आपको यहाँ दिख जायेंगे. हर तरह की दुकाने -फुटपाथ से लेकर बिदेशी ब्रांड तक की आपको मुनिरका की चौहदी में मिलेंगी. अजीब माहौल - हर वक़्त भीड़ ,हर वक़्त भागम भाग, देर रात तक खुली दुकाने , देर रात तक जागते घूमते लोग. एक साथ पूरे भारत का दर्शन आप कर सकते हैं. इतनी भीड़ की सिर्फ एक ही वजह है-- हर तरह के बजट में घर मिलने की सुविधा. तब इस बात का भी ख्याल रहे कि धूप और प्राकृतिक हवा का आनंद आपको सड़क पर ही लेना पड़ता है.लेकिन इन तमाम मुश्किल हालात के बावजूद भी कौन जाता है ज़ौक़ भला दिल्ली की गलियां छोड़ के ? हम तो जगह बदल लेंगे ,ढूढेंगे कोई नया आशियाना सस्ता और टिकाऊ ( टिकाऊ से मेरा मतलब है जहाँ कम से कम तीन साल आप रह सकें ).तब तक आप भी गुनगुनाइए मेरे साथ ये ग़ज़ल अपनी अपनी आवाज़ में, अपने अपने दर्द के साथ -- 

                                        बड़ा दिलकश बड़ा रंगीन है ये शहर कहते हैं
                                        यहाँ पर है हज़ारो घर घरों में लोग रहते हैं 
                                      मुझे इस शहर में गलियों का बंजारा बना डाला

                                        मैं इस दुनिया को अक्सर देख कर हैरान होता हूँ  
                                       न मुझ से बन सका छोटा सा घर दिन रात रोता हूँ 
                                           खुदाया तूने कैसे ये जहाँ सारा बना डाला 

मंगलवार, 28 जनवरी 2014

मुख़्तसर सी बात है ....



प्राचीन लिच्छिवि गणराज्य "वैशाली", जिसकी एक अजीब परंपरा हुआ करती थी - नगरवधू की . उस गणराज्य की सबसे सुंदर कन्या को नगरवधू की उपाधि दी जाती थी और उसकी दहलीज पर हर छोटा -बड़ा ख़ास और आम पूरे अधिकार से आ सकता था . कई बार सोचता हूँ तो दिल्ली भी मुझे वैसी ही लगती है हर वक़्त सजी संवरी- नगरवधू सी. इसने भी अपने  दहलीज पर आने की इज़ाज़त हर किसी को दे रखी है--- सदियों से . तुर्क , अफगान , मुग़ल , ब्रिटिश जो भी यहाँ आया अपना दिल लगा गया और ये सिलसिला आज तक नहीं रुका .
जिसने जिस अदब से बात की दिल्ली ने उसका उसी तलफ्फुज़ में एहतराम किया. हर प्राचीन शहर की अपनी एक परंपरा होती है अपना तहजीब होता है. लेकिन दिल्ली आज़ाद रही इस मामले में.  अपने कद्रदानो की खातिर दिल्ली ने अपना लिबास हर बार बदला. कभी रजिया सुलतान के अंदाज़ में ढली तो कभी हुमायूँ के लिबास को अपनाया. कभी निज़ामुद्दीन औलिया के मिजाज में रंगी तो कभी  मिर्ज़ा नौशा और मोमिन का लहजा अपनाया.
दिल्ली.......  अजीब कशिश है इस नाम मे .कितने शहर बूढ़े हुए ,कितनो को मौत आई पर दिल्ली तो जवान ही रही कमोबेश अब तक . चेहरा भी वही जो सदियों पहले रहा होगा ...जामा मस्जिद और मीना बाज़ार , लाल किला , पुराना किला, सफदरजंग का मकबरा, जंतर मंतर, क़ुतुब मीनार और लौह स्तंभ सब कुछ वैसा ही लेकिन अब दिल्ली ने लिबास बदल लिया है वक़्त के साथ. अब हमारी दिल्ली पाश्चात्य हो गई है. हालांकि ये वैसे ही है जैसे अंदर जनेऊ और ऊपर टाई . दिल्ली में आज भी कई गाँव बसते हैं और लगभग पूरी दिल्ली में आज भी मेला लगता है --कहीं बुध बाजार ,कहीं शुक्र बाजार के नाम से . ये बड़ी अजीब लेकिन सुकून देने वाली बात है. पाश्चात्य भी और शुद्ध देसी भी .
एक दशक पहले मैं भी आया था यहाँ कई लोगो की तरह अपना भविष्य टटोलने और तब मालूम भी नहीं था कि इस कदर दिल लगा बैठूंगा अपनी दिल्ली से. अब तो बरबस जुबान पर आ जाता  है  --
            “इन  दिनों  गरचे  दक्कन  में   है  बड़ी  क़द्र -ऐ -सुख़न
             कौन  जाये  ज़ौक़  पर  दिल्ली  की गलियां  छोड़  कर”

फिर आयेंगे जानिब आपके ,फिर रुबरु होंगे हम  ----दिल्ली की किसी गली में आपसे किसी रोज .