प्राचीन लिच्छिवि गणराज्य "वैशाली", जिसकी एक अजीब परंपरा हुआ करती थी - नगरवधू की . उस गणराज्य की सबसे सुंदर कन्या को नगरवधू की उपाधि दी जाती थी और उसकी दहलीज पर हर छोटा -बड़ा ख़ास और आम पूरे अधिकार से आ सकता था . कई बार सोचता हूँ तो दिल्ली भी मुझे वैसी ही लगती है हर वक़्त सजी संवरी- नगरवधू सी. इसने भी अपने दहलीज पर आने की इज़ाज़त हर किसी को दे रखी है--- सदियों से . तुर्क , अफगान , मुग़ल , ब्रिटिश जो भी यहाँ आया अपना दिल लगा गया और ये सिलसिला आज तक नहीं रुका .
जिसने जिस अदब से बात की दिल्ली ने उसका उसी तलफ्फुज़ में एहतराम किया. हर प्राचीन शहर की अपनी एक परंपरा होती है अपना तहजीब होता है. लेकिन दिल्ली आज़ाद रही इस मामले में. अपने कद्रदानो की खातिर दिल्ली ने अपना लिबास हर बार बदला. कभी रजिया सुलतान के अंदाज़ में ढली तो कभी हुमायूँ के लिबास को अपनाया. कभी निज़ामुद्दीन औलिया के मिजाज में रंगी तो कभी मिर्ज़ा नौशा और मोमिन का लहजा अपनाया.
दिल्ली....... अजीब कशिश है इस नाम मे .कितने शहर बूढ़े हुए ,कितनो को मौत आई पर दिल्ली तो जवान ही रही कमोबेश अब तक . चेहरा भी वही जो सदियों पहले रहा होगा ...जामा मस्जिद और मीना बाज़ार , लाल किला , पुराना किला, सफदरजंग का मकबरा, जंतर मंतर, क़ुतुब मीनार और लौह स्तंभ सब कुछ वैसा ही लेकिन अब दिल्ली ने लिबास बदल लिया है वक़्त के साथ. अब हमारी दिल्ली पाश्चात्य हो गई है. हालांकि ये वैसे ही है जैसे अंदर जनेऊ और ऊपर टाई . दिल्ली में आज भी कई गाँव बसते हैं और लगभग पूरी दिल्ली में आज भी मेला लगता है --कहीं बुध बाजार ,कहीं शुक्र बाजार के नाम से . ये बड़ी अजीब लेकिन सुकून देने वाली बात है. पाश्चात्य भी और शुद्ध देसी भी .
एक दशक पहले मैं भी आया था यहाँ कई लोगो की तरह अपना भविष्य टटोलने और तब मालूम भी नहीं था कि इस कदर दिल लगा बैठूंगा अपनी दिल्ली से. अब तो बरबस जुबान पर आ जाता है --
“इन दिनों गरचे दक्कन में है बड़ी क़द्र -ऐ -सुख़न
कौन जाये ज़ौक़ पर दिल्ली की गलियां छोड़ कर”
फिर आयेंगे जानिब आपके ,फिर रुबरु होंगे हम ----दिल्ली की किसी गली में आपसे किसी रोज .
